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________________ 160 रामचन्द्र-गुपचन्द्र का कथन है कि विकृत आकार, वेश - भषा दि, आचार - अवस्था विशेष से और विकृत - वागादि चेष्टा विशेष से और विकृत अंगों के विकृत वेशभूषादि के विस्मयोत्पादक धृष्टता व लौल्यभावादि से तथा गीवा, कर्प, डा, मीसा दि की विकृत केटा विशेष इन स्वगत तथा परगत भावों ते हात स्थायिक हास्य-रस व्यक्त होता है। इसमें नासिका, गण्ड, ओष्ठादिकों का स्पन्दन, आकुंचन प्रसारपादि, अनु, नेत्र विकार, जरठगह, पापर्वप्रदेश का ताडनादि अनुभाव होते हैं और अवहित्या, हर्षोत्साह, विस्मयादि व्यभिचारिभाव होते हैं।' हात्य के स्मित, दृसित, विहस्ति, उपहतित अपहसित और अतिहसित ये छ: भेद होते हैं। उत्तम पुरुषों के स्मित तथा हतित, मध्यमों के विहसित तथा उपहसित तथा अधमों के अपहतित तथा अतिहसित हास्य होते हैं। रामचन्द्र-गुपचन्द्र का क्यन है कि यह हास्य रत अधिकतर अधम प्रकृति में ही देखा जाता है। मनुष्यों में अपने वर्ग की अपेक्षा स्त्रियों में और पुरुषों में अपने वर्ग की अपेधा अधम प्रकृति में यह अधिकतर पाया जाता है। क्योंकि इन्हीं में ये करूप, विमत्स, भयानका दि रस व अधिकतर शोक, हात, भय, परनिन्दादि देखे जाते हैं और थोड़ी सी विचित्र बात में उन्हें काफी विस्मय हो जाता है। 1. हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/12 एवं विवरण 2. हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/13 एवं विवरण 3. हिन्दी नाट्यदर्पप, विवरप पृ. 312
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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