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नासा, ओष्ठ, कपोल • स्पन्दन, दृष्टि-व्याकोश, आकुंचन स्वेदास्यराग, पार्श्वग्रहणादि अनुभाव तथा निद्रा, अवहित्था, त्रपा, आलस्यादि व्यभिचारिभाव का समावेश किया गया है। उन्होंने हास्य को आत्मस्थ व परस्थ दो प्रकार का माना है। 2 पुनः आत्मस्थ हास्य रस स्मित, विहसित व अपहसित भेद से तीन प्रकार का बताया है जो क्रमशः उत्तम, मध्यम व अधम प्रकृति में पाया जाता है। 3 उन्होंने स्मितादि के लक्षण हेतु भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की कारिकाओं को उद्धृत किया है। 4
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परस्थ हास्य, उनके अनुसार स्मितादि की संक्रान्त अवस्था है। इसके भी तीन भेद हैं हरित, अपहसित व अतििहसित' यह भी क्रमशः उत्तम,
मध्यम व अधम प्रकृतियों में पाया जाता है।' उक्त हतितादि के लक्षण के लिए भी हेमचन्द्र ने भरत कारिकाओं को उद्धृत किया है। 7
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वही, 2/ 9 की वृत्ति ।
स चात्मस्थ: परस्थश्च ।
काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 114
3. उत्तममध्यामा धमेषु स्थित विहसितापहसितै : स आत्मस्थस्त्रेधा ।
वही, 2/10
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वही, पृ. 114
वही, पृ. 114
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वही, पृ. 114
हि. नाट्यदर्पणं, 3/12 एवं विवरण