________________
158
में पाया जाता है।' यह आत्मन्य व परस्थ भेद से दो प्रकार का होता है। जब किसी भी वस्तु के दर्शनादि से स्वयं हतता है तब आत्मस्थ कहलाता है और जब दूसरे को हंसाता है, तब वह परस्थ कहलाता है।
आ. वाग्भट प्रथम के अनुसार प्रायः चेष्टा, अंग और वेषज नित विकार से हास्य की उत्पत्ति होती है। यह उत्तम, मध्यम व अधम । प्रकृति भेद से तीन प्रकार का होता है। सज्जनों अर्थात उत्तम व्यक्तियों के हास्य में मात्र नेत्र तथा कपोल प्रफुल्लित हो उठते हैं पर उनके ओष्ठ बन्द रहते हैं। मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों के हात्य में मुख खुल जाता है और अधमजनों का हास्य शब्दयुक्त होता है।
आ. हेमचन्द्र के अनुसार विकृत वेषादि विभाव वाला, नासा स्पन्दन आदि अनुभाव वाला तथा निद्रादि व्यभिचार भाव वाला हात नामक स्थायिभाव अभिव्यक्त होने पर हास्य रस कहलाता है। देश, काल, वय और वर्ण के विपरीत केशबन्धादि विकृत वेश कहलाता है। आदि शब्द से नर्तन अन्य गति आदि का अनुकरप, असत्प्रलाप, भूषप आदि विभाव
।. वही, 6 - 52 - 53 2. नाट्यशास्त्र, 6/48, पृ. 74 3 चेष्टांगवेषवैकृत्यादच्यो हास्यस्य चोदवः।
वाग्भटालंकार 5/23 + वही, 5/24 5. विकृतवेषादिविभावो नातास्पन्दनायनुभावो निद्रादिव्यभिचारी हासो हास्यः!
काव्यानुशासन, 2/9