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________________ 157 नरेन्दपभसरि ने आ.हेमचन्द्र की तरह करूप - विपलम्म को करूप रत ही माना है।' आ. वाग्भट द्वितीय ने हेमचन्द्र के समान ही श्रृंगार - रस - भेद विवेचन किया है। दोनो में अन्तर मात्र इतना है कि वाग्भट द्वितीय ने प्रवास के - कार्यहतुक, शाप-हेतुक, दैववशात एवं परवशाल ये चार भेद माने हैं जबकि हेमचन्द्र ने प्रवास के तीन भेद किए हैं -- कार्यहतुक, शाप-हेतुक तथा संभम। इन जैनाचार्यो द्वारा किया गया श्रृंगार रस विवेचन प्राय: भरतपरम्परा का अनुसरप करते हुए भी आ. हेमचन्द्र व नरेन्द्रप्रभसरि द्वारा करूपविप्रलम्भ को करूप-रस स्वीकार करना उनकी नवीनता का परिचायक है। हास्य रस : हास्य रस का स्थायिभाव हास है। आचार्य भरत ने विकृत वेष, अलंकारादि विभावों से इसकी उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार हास्य छः प्रकार का होता है - स्मित, हस्ति, विदृसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित। प्रथम दो प्रकार का हास्य उत्तम पुरुषों में, मध्यम दो प्रकार का हास्य मध्यम पुरूषो में तथा अन्तिम दो प्रकार का हास्य अधम पुरुषों - - - - - - - - 1. वही, 3/16 वृत्ति । 2. काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 53-54 - वही, पृ. 54 + नाट्यशास्त्र, 6/48, पृ. 74
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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