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________________ संभोग तथा विप्रलम्भ रूप दोनों प्रकार के श्रृंगार के विभाव तथा अनुभावों का वर्णन करते रामचन्द्र गुपचन्द्र लिखते हैं कि शृंगार रस में नायक नायिका आलम्बन विभाव तथा काव्य, गीत, बसन्त चन्द्रोदय, उद्यानादि, उद्दीपन विभाव होते हैं। परस्पर नयन वदन, प्रसाद - स्थिति, मनोज्ञअंगविकारादि अनुभाव होते हैं और उत्साह, सन्तापाश्रुपात, मन्यु, ग्लानि, चिन्ता हर्षादि संचारी ( व्यभिचारि) भाव होते हैं। संयोग श्रृंगार में जो तापाश्रु, ईर्ष्या, ग्लानि आदि संचारी भाव होते हैं वही विप्रलम्भ में अनुभाव होते हैं।। विप्रलम्भ श्रृंगार में आलस्य, उग्रता और जुगुप्ता 2 को छोड़कर निर्वेदादि दुःखमय पदार्थ भी संचारी भाव होते हैं। -- आचार्य नरेन्द्रप्रभरि ने सर्वप्रथम श्रृंगार के दो भेद किए हैं संभोग और विप्रलम्भ | पुनः संभोग के परस्पर अवलोकन, आलिंगन, चुम्बन आदि अनन्त भेद माने हैं। 3 विप्रलम्भ के पाँच भेद किये हैं। स्पृहा, शाप, वियोग, ईर्ष्या और प्रवासजन्य । " आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने यद्यपि संभोग श्रृंगार के अनन्त भेद माने हैं तथापि पाँच प्रकार के विपलम्भ के पश्चात् होने वाले संभोग के कारण संभोग - श्रृंगार भी पाँच प्रकार का माना है स्पृहानन्तर, शापानन्तर, वियोगानन्तर, ईर्ष्यानन्तर एवं प्रवारान्तर । ' 1. हि नाट्यदर्पण, 3/11 एवं विवरण 2. हि. नाट्यदर्पण, 3 / 11 एवं विवरण 3. स च परस्परावलोकना लिंगन अलंकारमहोदधि - 3/15 की वृत्ति अलंकारमहोदधि, 3/16 4. 5. वही, 3/16 वृत्ति । 156 - चुम्बन - पानाद्यनन्तभेदः । - --
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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