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________________ 155 संभोग दोनों की एक साथ मिश्रित रूप में विभावादि के कारप अत्यन्त चमत्कारयुक्त प्रतीति होती है। ___ इसी प्रकार "किमपि किमपि मन्दं इत्यादि पन में संभोग अंगार के अनेक रूपों का प्रदर्शन किया गया है। विप्रलंम अंगार के 5 मेदों में से ईर्ष्या अथवा प्रपय-कलह के कारण होने वाला वैमनस्य मान कहलाता है। यथा “याते दारवती इत्यादि पघ। समीपस्थ रहने वाले का भी अन्य रूप करा देना "शाप" कहलाता है। जैसे "कादम्बरी' में महाश्वेता के द्वारा वैशम्पायन को शुक बना देना। माता-पिता आदि के परतंत्र होने के कारप इस समय जिन दो प्रेमियों का मिलन नहीं हो पा रहा है किन्तु आगे जिनका प्रथम मिलन होने वाला है उनकी परस्पर मिलन की इच्छा अभिलाष कहलाती है। उसके कारप दो प्रेमियों का जो मिलन का अभाव है वह अभिलाषजन्य विपलम्म कहलाता है। जैसे - "उद्वच्छो पियइ. इत्यादि पध। जिनका सम्मिलन पहले हो चुका है इस प्रकार के प्रेमियों का मातापिता आदि के प्रतिबन्ध के बिना भी अन्य कार्यो के कारप परस्पर मिलन न हो सकना विरह कहलाता है। जैसे - "अन्यत्र बजतीति का खलु इत्यादि पध। 1. वही, पृ. 107 2. वही, पृ. 107-8 3- हिन्दी नाट्यदर्पण, 308 वही, पु, 308 5 वही, पृ. 309
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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