SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 154 आचार्य रामचन्द्र- गुपचन्द्र के अनुसार सम्भोग व विप्रलंभात्मक दो प्रकार का श्रृंगार रस होता है। उनमें से प्रथम अर्थात संभोग श्रृंगार अनन्त प्रकार का होता है एवं विपलम्भ श्रृंगार -(1) मान, (2) प्रवास, (3) शाप, (4) ईर्ष्या तथा (5) विरहरूप पाच प्रकार का होता है।' आगे वे लिखते हैं एक दूसरे के अनुकूल पड़ने वाले तथा एक दूसरे को प्रेम करने वाले (स्त्री-पुरूष रूप) दो विलासियों का जो परस्पर दर्शन, स्पर्शन आदि है वह संभोग शृंगार कहलाता है। परस्पर अनुरक्त होने पर मी परतन्त्रता आदि के कारप दोनों विलासियों का परस्पर मिलन न हो सकना अथवा चित्त का विलग हो जाना विप्रलंभ श्रृंगार है। संभोग में भी विप्रलंभ की संभावना बने रहने और विपलम्म में भी मन में संभोग का इच्छात्मक सम्बन्ध विद्यमान रहने से शृंगाररस उभयात्मक होता है। किन्तु किसी एक अंश की प्रधानता के कारप संभोग भंगार विपलम्म मगार कहा जाता है। दोनों अवस्थाओं के सम्मिश्रप का वर्णन होने पर विशेष चमत्कार होता है। जैसे - "एकस्मिन शयने" इत्यादि क्या इसमें ईर्ष्या विप्रलम्भ तथा 1. सम्भोग - विपलम्मात्मा अंगारः प्रथमोबहुः । मान-प्रवास-शापेच्छा-विरहै: पंचधाऽपरः। हि. नाट्यदर्पप, 3/10 2. हि. नाट्यदर्पप, पृ. 306 3 हि. नाट्यदर्पप, पृ. 306 ५. हिन्दी नाट्यदर्पप, पृ. 107 5 वही, पृ. 107
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy