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________________ 151 सात्त्विक, अनुमान, शीत - सेवन, भरपोयम तथा संदेश आदि अनुभाव होते हैं।' यह विपलंभ श्रृंगार तीन प्रकार का होता है - (1) अभिलाष विप्रलम्भ, (2) मान विप्रलंभ एवं (३) प्रवास विप्रलंभ। आ. हेमचन्द्र का कथन है कि उपर्युक्त तीन प्रकार के विप्रलम्भ के अतिरिक्त और कोई विप्रलम्भ नहीं होता है। यदि कोई करूण विप्रलम्भ को विप्रलम्भ श्रृंगार के अन्तर्गत मान लेता है तो यह अनुचित है क्योंकि करूपविप्रलंभ तो वास्तव में करूप ही है। उदाहरपार्थ- "हृदये वसती ति.... इत्यादि करूण विपलम्भ का उदाहरप है जिससे वास्तव में करूप रत की ही प्रतीति हो रही है। । अभिलाष विप्रलम्भ दो प्रकार का होता है - देवदश विपलंभ। इसका उदाहरप - "शैलात्मना पि..:' इत्यादि आचार्य ने दिया है। इसमें विपलम्म देववशात हुआ है। द्वितीय भेद है - पारवश्य विप्रलम्भ। जिसका उदाहरप "स्मरनवनदीपूरेपोटा.... इत्यादि पद्य है। 1. वही, पृ. ।।। 2. काव्यानुशासन, पृ. ।।। 3 वही, पृ. ।।। वही, पृ, ।।। - वही, पू, 11-112
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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