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________________ 1 भेद होते हैं। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने आचार्य मम्मट 2 की भांति अनंत भेद संभव माने हैं तथा दृष्टान्त रूप में "दृष्ट्वैकासनसंगते... 3. इत्यादि श्लोक को प्रस्तुत किया है जिसमें नायिका के चुम्बन का वर्णन होने से संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति हो रही है। विप्रलंभ श्रृंगार का लक्षण देते हुए हेमचन्द्र लिखते हैं - शंकादि व्यभिचारिभावों व संतापादि अनुभावों वाला विप्रलंभ अंगार है। 4 उनके अनुसार सम्भोगजन्य सुखास्वाद के लोभ से व्यक्ति इसमें विशेष रूप से ठगा जाता है, इसलिये इसे विप्रलम्भ कहते हैं। 5 विप्रलम्भ श्रृंगार में शंका, औत्सुक्य, मद, ग्लानि, निद्रा, सुप्त, प्रबोध, चिन्ता, असूया, श्रम, निर्वेद, मरण, उन्माद, जड़ता, व्याधि, स्वप्न एवं अपस्मार आदि व्यभिचारिभाव होते हैं। और संताप, जागरण कृशता, प्रलाप, क्षीणता, नेत्र एवं वापी की वक्रता, दीन संचरण, अनुकरण, कृति, लेख - लेखन, वाचन, स्वभाव निह्नव, वार्ता, प्रश्न, स्नेह - निवेदन, 1. स च परस्परावलोकना लिंगनचुम्बन पानाद्यनन्तभेदः । वही, पृ. 109 2. 3. 150 ما तत्रायः परस्परावलोकना लिंगना धरपानपरिचुम्बनाद्यनन्तभेदत्वादपरिच्छेद्य इत्येक एव गण्यते । काव्यप्रकाश, वृत्ति, 121 पृ० काव्यानुशासन, पृ. 110 वही, पृ. 110 5. संभोगसुखाभ्वादलोभेन विशेषिष पलभ्यते ( आत्माऽत्रेति विप्रलंभः । वही, पृ. 110
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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