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________________ 149 वह कामी की गाद रति है।' अर्थात रति का परिपोष निरन्तर कामना के बने रहने पर ही संभव है। इसलिए दोनों दशाओं - संभोग व विपलंभ के मिलन में ही श्रृंगाररस का अतिशय चमत्कार है। जैसे - "एकत्मिन् शायने. इत्यादि। यहाँ पर ईा विपलम्भ एवं सम्भोग के सम्मिलन ते दम्पति के विभाव, अनभाव व व्यभिचारी भावों के द्वारा अतिशय रस की अनुभति होती है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार सुखमय धृति आदि व्यभिचारिभावों व रोमांचादि अनुभावों वाला संभोग श्रृंगार है।* लज्जा इत्यादि के द्वारा निषिद्ध होते हुए भी इष्ट जो प्रिय दर्शन आदि है, वे ही कामीयुगल के द्वारा जहाँ सम्यक्पेप भोगे जाते हैं, उसे ही संभोग कहते हैं, और यह सुखमय होता है। धृति आदि व्यभिचारिभाव होते हैं। रोमांच, स्वेद, कम्प, अश्रु, मेखला - स्खलन, श्वसित, विक्षोम, केशाबन्धन, वस्त्र-संयमन, वस्त्राभरप, माल्यादि के विचित्र प्रकार से सम्यक् निदेर्शन में क्षपिक चाटुकारी आदि वा चिक, कायिक व मानसिक व्यापार के लक्षण वाला अनुभाव होता है। इस प्रकार इसके परस्पर अवलोकन, आलिंगन व चुम्बन आदि अनन्त 1. यद्वामाभिनिवेशित्वं यतश्च विनिवार्यत। दर्लमत्वंच यन्नार्याः कामिनः सा परा रतिः।।। ना.शा.अ. 22 श्लोक 193, नि. सा. काव्यानुशासन, पृ. 108 से उत्त काव्यान. पू. 108 3 वही, पृ. 108-109 पर वही, पृ. 109
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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