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________________ 146 उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता हैद कि जैनाचार्य वाग्भटप्रथम, हेमचन्द्र, रामचन्द्र-गुपचन्द्र, नरेन्द्रप्रभतरि, वाग्भट द्वितीय व भावदेवतरि नौ रस - मेदों के समर्थक हैं। हेमचन्द्र, रामचन्द्र-गुपचन्द्र व नरेन्द्रप्रभसरि ने रस - क्रम - निरूपप में वे ही हेतु स्वीकार किए हैं जो अभिनवगुप्त को मान्य थे। नरेन्द्रप्रभसरि ने स्पष्ट रूप से शान्त रस की स्थिति नादय में स्वीकार की है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किया गया रस-भेद विवेचन भरतपरम्परा का अनुसरण करते हुए भी अनूठा है। श्रृंगारादि आठ या नौ रतों को सभी आचार्य स्वीकार करते हैं, जो इस प्रकार है - श्रृंगार रस - अंगार रस का स्थायिभाव रति है। आचार्य भरतानुसार ये उत्तम प्रकृति वाले नायक-नायिका में होता है। इसके दो भेद हैं - संभोग श्रृंगार व विप्रलम्भ श्रृंगार। संभोग - श्रृंगार, ऋतु, माला, अनुलेपन, अलंकार धारप, इष्टजन, सामीप्य, विषय, सुन्दर भवन का उपभोग, वनागमन तथा अनुभव करने, सुनने, प्रिय के देख्ने तथा कीडा और लीलादि विभावों से उत्पन्न होता है। किन्तु जब नायक-नायिका एक दूसरे से विद्युड़कर दुःखानुभति करते हैं तब विप्रलम्भ श्रृंगारकी अपत्ति होती है। • नाट्यशास्त्र, 6/45
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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