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________________ 145 आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने श्रृंगारादि नौ रतों को स्वीकार किया है।' इन्होंने रसकम में आचार्य हेमचन्द्र का ही अनुकरप किया है तथा अपने इस क्रम को अपनाने के लिये उन्होंने जो हेतु प्रस्तुत किए हैं वे हेमचन्द्रसम्मत ही हैं। उन्होंने आर्द्रता रूप स्थायिभाव वाले स्नेहादि सभी रसों का रत्यादि ( श्रृंगारादि) रतो में ही अन्तर्भाव किया है। उन्हें शान्तरस की स्थिति नाट्य में भी स्वीकार थी, ऐता उनके 'नवनाट्ये रसा अमी 'कथन ते स्पष्ट होता है। आचार्य वाग्भट द्वितीय ने भी श्रृंगार, हास्य, करूप, रौद्र, वीर भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवं शान्त - ये नव रस स्वीकार किये हैं। जिनका क्रम हेमचन्द्र सम्मत ही हैं। आचार्य भावदेवसरि ने यमपि नौ रसों की गपना स्पष्ट रूप से नहीं की है तथापि उनके द्वारा प्रतिपादित नौ विभावों की गणना से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्हें नौ रस- मेद ही मान्य है। 1. श्रृंगार-हास्य करूपा रौद्र-वीर-भयानकाः। वीभत्साह तशान्ताच नव नाट्ये रसा अमी।। ___ - अलंकारमहोदधि, 3/13 2. वही 3/13 वृत्ति । ॐ काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 53 +. काव्यालंकारसार.8/3
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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