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उक्त कथन से ये प्रतीत होता है कि कुछ लोग स्नेह, लौल्य एवं भक्ति रस को भी स्वीकार करते थे, किन्तु इन रसों को अलग से स्वीकार करना हेमचन्द्र को मान्य नहीं। अतः उन्होंने उक्त रसों का खंडन करके अंगारादि रतों में ही उनका अन्तर्भाव किया है।
आचार्य रामचन्द्र गुपचन्द्र ने नौ रतों का उल्लेख किया है।' उन्होंने श्रृंगारादि रसों को उसी क्रम से प्रस्तुत किया है, जो क्रम हेमचन्द्र ने अपनाया है तथा इनके रखने में भी वही हेतु प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें हेमचन्द्र ने स्वीकार किया है। इसके अतिरिगत आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि श्रृंगारादि नौ रस विशेष रूप से मनोरंजक एवं पुरुषार्थों में उपयोगी होने से पूर्ववर्ता आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट किये गये है किन्तु इनसे भिन्न और रत भी हो सकते हैं। जैसे तृष्णा (लालच)रूप स्थायिभाववाला लौल्य, आर्द्रतारूप स्थायिभाव वाला स्नेह, आसक्ति रूप स्या यिभाववाला व्यसन, अरति रूप स्थायिभाव वाला दुःस और संतोष रूप स्थायिभाववाला सुख - इत्यादि अन्य रस भी हो सकते हैं। कुछ लोग इन्हैं रस तो मानते हैं, किंतु अन्तर्भाव पूर्वोक्त नौ रतों में ही कर लेते हैं।
1. हिन्दी नाट्यदर्पप 3/2 2. वही 3/9वृत्ति 3. वही, 3/१, वृत्ति