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________________ 143 किया है। ___ आचार्य हेमचन्द्रानुसार ये नौ रत परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। अतः आद्रता रूप स्थायिभाव वाले स्नेह को रस मानना उनकी दृष्टि में असंगत है क्योंकि उसका रत्यादि भावों में अन्तर्भाव हो जाता है। उसी प्रकार युवकों का मित्र के प्रति स्नेह रति में, लक्ष्मपादि का भाई के प्रति स्नेह धर्मवीर में और बालकों का माता-पिता आदि के पति स्नेह का भयानक - रस में अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार तुद का पुत्रादि के प्रति स्नेह के विषय में समझना चाहिए तथा गंध स्थायिभाव वाले लौल्य रस का हास, रति अथवा अन्यत्र अन्तर्भाव सम्झना चाहिए। इसी प्रकार भक्तिरस का अन्तर्भाव भी अन्य रसों में किया जा सकता है। 1. तत्र कामस्य सकलजातिसलमतयात्यन्तपरिचितत्वेन सर्वान प्रतियतेति पूर्व श्रृंगारः। तदनुगामी च हास्यः । निरपेक्षभावत्वात् तापिरीतस्ततः करूपः। ततस्तन्निमित रौद्रः। स चार्थप्रधानः। ततः कामार्थयोधर्ममलत्वाद वीरः। स हि धर्मप्रधानः। तस्य च मीतामयपदानसारत्वात। तदनन्तरं भयानक:। तद्विभावसाधारण्यसम्भावनात ततो वीभत्स इति। वीरत्य पर्यन्तेऽद- . भतः। यदीरेपा क्षिप्त फ्लमित्यनन्तरं तदपादानम । ... ततस्त्रिवर्गात्मकप्रवृत्तिधर्मविपरीत - निवृत्ति धर्मात्मको मोक्षफ्ल: शान्ति। - अभिनवभारती, पृ. 432 2. काव्यानुशासन, 2/2 वृत्ति
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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