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________________ 142 आचार्य हेमचन्द्र ने भी नौ रस स्वीकार किये हैं पर उनका क्रम इस प्रकार है - श्रृंगार, हास्य, करूप, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत व शान्त।' इस क्रम को अपनाने में उनका एक विशेष प्रयोजन है। उनका कथन है कि रति ( श्रृंगार रस का स्थायीभाव) के सभी प्राणियों में सुलभ होने से, सबके अत्यन्त परिचित होने से एवं सबके प्रति आझादक होने के कारप सर्वप्रथम श्रृंगार रस का गृहप किया गया है। श्रृंगार का अनुगामी होने के कारप तत्पश्चात् हास्य रस को रखा गया है। निरपेक्ष भाव होने के कारण उस हास्य के विपरीत करूप को हास्य के बाद रखा गया है। तत्पश्चात् करूप-रस का निमित्तभूत तथा अर्थप्रधान रौद्ररत का उल्लेख हुआ है। इस प्रकार कामप्रधान एवं अर्थप्रधान रसों का उल्लेख करने के पश्चात काम और अर्थ के धर्ममलक होने के कारण धर्मप्रधान वीररस को रखा गया है। वीररस का "भीतों को अभय प्रदान करना" रूप प्रयोजन होने से इसके बाद भयानक रस का कथन है। भयानक रस के समान ही वीभत्स रस के विभाव होने से भयानक के पश्चात वीभत्स रस को ग्रहण किया गया है, जो वीररस के द्वारा आक्षिप्त है। वीररस के अन्त में अदभुत रस की प्राप्ति होती है, अत : अद्भुत रस का ग्रहण किया गया है। इसके पश्चात धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग के साधनभूत प्रवृत्ति-धर्मों से विपरीत निवृत्ति धर्म - प्रधान मोक्ष रूप फल वाला शान्त रस होता है, अत: उसका गहए किया गया है। ठीक इसी प्रकार का विवेचन अभिनवभारतीकार आ, अभिनवगुप्त ने श्री आचार्य हेमचन्द्र से पूर्व । • काव्यानुशासन, 2/2 2. काव्यानुशासन, 2/2 वृत्ति
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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