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________________ 147 आचार्य धनंजय ने अंगार के तीन भेद किए हैं - - अ योग, विप्रयोग तथा संयोगा' मम्मट ने श्रृंगार रस के भरत-सम्मत ही उक्त दो भेद करके संयोग - श्रृंगार के परस्पर अवलोकन, आलिंगन, अधरपान, चम्बनादि अनन्त भेद होने से अगपनीय एक ही भेद गिना है तथा विप्रलंभ श्रृंगार के अभिलाष, विरह, ईया, प्रवास और शाप के कारप 5 भेद माने हैं। जैनाचार्य वाग्भट - प्रथम के अनुसार - स्त्री और पुरूष का परस्पर प्रेम भाव श्रृंगार है। यह दो प्रकार का होता है- संयोग और विप्रलम। स्त्री - पुरुष का मिलन संयोग श्रृंगार है और उनका वियोग विपलम्म श्रृंगार है। पुनः श्रृंगार के दो भेद उन्होंने और किए हैं- प्रच्छन्न तथा प्रक्ट।। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार (अव्य काप्य में) सुने जाते हुए अथवा नाट्य अभिनय आदि में) देखे जाते हुए आलम्बन एवं उद्दीपन रूप स्त्री-पुरूष एवं परस्पर उनके उपयोगी माल्य, ऋतु, शल, नगर, महल, नदी, चन्द्र, पवन, उद्यान, बावड़ी, जल एवं क्रीडा इत्यादि विभाव वाली एवं जुगुप्ता, आलस्य तथा उग्रता से रहित अन्य (समस्त तीस) व्यभिचारि भाव वाली, स्थिर अनुराग वाले एवं संभोग सुख की इच्छा वाले तरूप कामी एवं कामिनी की परस्पर विभा विका बनी हुई तथा उन दोनों (तरूप एवं तरूपी)में एक 1. हिन्दी दशरूपक, पृ, 268 । काव्यप्रकाश, पृ. 121-123 वाग्भटालंकार - 5/5-6
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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