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________________ चर्वणायोग्य होने पर, रसास्वादन के समय ही उसकी सत्ता रहती है । ' उनका कथन है कि यदि कोई कहता है कि लोक में कारक और ज्ञापक हेतुओं के अतिरिक्त अन्य कौन सा हेतु देखा गया है तो इसका उत्तर है कि कहीं नहीं। यह तो रस के अलौकिकत्व की सिद्धि में भूषण ही है, दूषप नहीं है। 2 आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावये तीनों सम्मिलित रूप से रस के व्यंजक होते हैं, अलग-अलग नहीं क्योंकि अलग-अलग हेतु मानने पर व्यभिचार दोष उत्पन्न होगा। 3 भाव ये है कि किसी भी विभाव आदि का किसी एक रस के साथ नियत साहचर्य नहीं होता । यथा "व्याघ्र' आदि विभाव भयानक रस के समान वीर, अनुपात आदि अनुभाव करूप के समान अद्भुत और रौद्ररस के भी होते हैं। श्रृंगार व भयानक रस के भी होते हैं। इसी प्रकार चिन्ता आदि व्यभिचारिभाव करूण के समान श्रृंगार, वीर व भयानक रस के भी होते हैं। 4 1. विभावादिभावनावधिरलौ किचमत्कारका रितया काव्यानु, वृत्ति, पृ. 88 कारकज्ञापकाभ्यामन्यत् क्वदृष्टमिति चेन्न क्वचिदृष्टमित्यलौकिकत्व सिद्धेभूषणमेतन्त्र दूषणम्। वही, वृत्ति, पृ. 103, तुलनीय काव्यप्रकाश अ.म विभावादीनां च समस्तानामभिव्य-जकत्वं न व्यस्तानाम् व्यभिचारात् काव्यानु, वृत्ति, पू, 1038 4. व्याघ्रदयो हि विभावा भयानकस्यैव वीरात्भुत रौद्रणाम्। अनुपातादयोऽ नुभावाः करूपस्येव श्रृंगारभयानकयो श्चिन्तादयो व्यभिचारिणः करूपस्येव भंगारवीरभयानकानाम्। 2. 3. 131 .... इत्यादि । वही, वृत्ति, पृ, 103 तुलनीयः काव्यप्रकाश, वृत्ति पृ. 113
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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