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________________ इसलिये विभावादि को व्यस्त ( अलग-अलग रूप ते रसाभिव्यक्ति का कारण मानना असंगत है, जबकि इन्हें सम्मिलित रूप से कारण मानने पर कोई दोष नहीं रह जाता है। जैसे- प्रियमरण आदि विभावरोदन आदि अनुभाव एवं चिन्ता आदि व्यभिचारी भाव ये तीनों मिलकर करूप रस की ही अभिव्यक्ति करते हैं, अन्य रस की नहीं। इसलिये इन तीनों को समस्त रूप में रसाभिव्यक्ति का हेतु माना गया है, व्यस्त रूप में नहीं। यदि काव्य में कहीं विभावादि (विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव ) में से किसी एक अथवा दो का ही वर्पन होता है तो भी अन्य एक अथवा दो भावों का आक्षेप उपचार से कर लिया जाता है।' उदाहरणार्थ "केली क दलितस्य'.. ' इत्यादि में केवल सुन्दरी रूप आलम्बन विभाव का ही वर्णन है, किन्तु यह विभाव अन्य अनुभाव व व्यभिचारि भावों को आक्षिप्त करके सम्मिलित रूप से ही रताभिव्यक्ति का हेतु बनता है। इसी प्रकार "यद्विश्रम्य 3... इत्यादि देखने की विचित्रता, अंगों की कृशता, वैवर्य आदि अनुभावों का वर्णन किया गया है, अन्य विभाव व व्यभिचारी भावों का आक्षेप से बोध होता है तथा 'दूरादुत्सुकमागते... इत्यादि में औत्सुक्य, लज्जा, हर्ष, क्रोध, अनुसूया व प्रसाद आदि व्यभिचारिभावों का ही वर्णन है, फिर भी उनके (व्यभिचारी भावों के) औचित्य से अन्य दो भावों (विभाव, अनुभाव ) का आश्वैप हो जाता है। 1. 2. 3. 4. 4" वही, टीका, पृ. 105 वही, पृ, 104 वही, पृ. 104 , 104 वही, 132 "
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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