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आचार्य हेमचन्द्र ने रस को अलौकिक कहा है। उसकी अलौकिकता सिद्ध करते वे लिखते हैं कि विभावादि के विनाश होने पर भी रस की स्थिति संभव होने से वह रस विभावादि का कार्य नहीं है और उस सिद्रत का अनुभव के पूर्व अभाव होने से वह रस ज्ञाप्य भी नहीं है।'
आचार्य हेमचन्द्र का उक्त कथन आचार्य मम्मट के कथन से शब्दश: मिलता है। दोनों ही आचार्यो का मन्तव्य है कि यदि रस को विभावादि ( कारपों) का कार्य मान लें तो विभावादि ही उसके कारप कहे जायेंगे और लोक में जैते दण्ड चक्रादि कारप के नष्ट होने पर भी घटरूप कार्य बना ही रहता है वैसे काव्य में विभावादि कारप के न रहने पर रस रूप कार्य नहीं रह सकता है। अतः रस को विभावादि के कार्य रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
इसी प्रकार रस ज्ञाप्य भी नहीं है क्योंकि उस सिद् रत के अनुभव होने के पूर्व उस रस का अभाव रहता है। यथा-घटादि पदार्य अधरे में रहते हैं तभी तो दीपका दि के द्वारा प्रकाश्यमान होने पर ज्ञाप्य होते हैं। उनका पहले ते अभाव हो तो दीपकादि के द्वारा वह कैसे हाप्य हो सकते हैं। अर्थात नहीं हो सकते। इस प्रकार की स्थिति रस के विषय में नहीं है। क्योंकि विभावादि के पूर्व रस की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभावादि के
। स च न विभावादेः कार्यस्तद्विनाशेऽपि रससंभवप्रसंगात।
नापि ज्ञाप्यःसिदत्य तस्याभावात्। ___काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 103 - तुलनीय, काव्यप्रकाश, वृत्ति, पृ. 10