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तृतीय अध्याय - जैनाचार्यों की दृष्टि में रतस्वरूप विवेचन
रस - सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का अत्यन्त प्राचीन तथा प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। यह भारतीय साहित्यशास्त्र का मेरुदण्ड ही नहीं, उसकी महत्तम उपलब्धि भी है। सामान्यतः रस शब्द का प्रयोग श्रृंगारादि काव्य रत, कषाय, तिक्त, कटु आदि आसाथ पदार्थ, घृतादि चिकने पदार्थ तथा विष, जल, निर्यात वृक्षों ते चने वाला तरल पदार्थ पारद, राग और वीर्य में होता है।' काव्यशास्त्र में रस शब्द का प्रयोग पारिभाषिक अर्थ में हुआ है, अतः जो आस्वादित हो वह रत है। काव्य के पठन, प्रवप या दर्शन ते जित आनंद का अनुभव होता है, वही आनन्द "रस" कहलाता है।
__ "नहि रताद ते कश्चिदर्थः प्रवर्तते आचार्य भरत के इस कथन से रस का सर्वाधिक महत्व एवं काव्य तथा नाट्य में इसका अपरिहार्यत्व सुस्पष्ट हो जाता है। नादय की रचना को रसकल्लोलसंकुल होने के कारप ही कठिन कहा गया है। पर वह रस ही नाट्य या काव्य का प्रापभूत तत्व है अतएव रससिद्ध कवियों की सर्वत्र प्रशंसा की गई है। वही वास्तविक कवि है, तथा उसी के काव्य के पढ़ने से मर्त्यलोक के वासी मनुष्य भी काव्यरत रूपी सुधा का पान
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1. श्रृंगारादो कषायादी घृतादो च विषे जले । नियति पारदे रागें वीर्येऽपि रस इष्यते।। - जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान,
पृ. ११ से उद्धेत 2 अलंकारमृदः पन्थाः कथादीनां सुसभ्यरः। दुःस चरस्तु नादयस्य रसकल्लोलसंकुल :।।
- नाटयदर्पप, 1/3