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करने वाले बन जाते हैं, जिसकी वापी रसोर्मियों में टकराती हुई नाट्य में नृत्य करती है।' नाट्य अथवा काव्य में वर्णित ज्ञात भी कथा, रसाय से नवीन सी लगती है। आचार्य मम्मट ने रसास्वादन से समुद्भूत विगलित वेधान्तर आनन्द को सकलप्रयोजनमौलिभत कहा है। रसादि के आश्रय ते परिमित काव्यमार्ग मी अनन्तता को प्राप्त हो जाता है।* रसवादी एवं ध्वनिवादी आचार्यों ने काव्य में रस को सर्वोच्च स्थान देते हुए इसकी प्रतिष्ठा काव्य की आत्मा के रूप में ही की है। इसके अभाव में अलंकारादि
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1. स कविस्तस्य काव्येन मा अपि सुधान्धसः। रसो मिर्पिता नाट्ये यत्त्य नृत्यति भारती ।।
वहीं, 1/5 2. द्वन्टपूर्वा अपि यर्थाः काव्ये रसपरिगृहात। सर्वे नवा इवा भान्ति मधुमास इव दुमाः।।
ध्वन्यालोक 4/4 3. सकलप्रयोजमौलिभतं तमनन्तरमेवरसास्वादनसमुदभूतं विगलित क्यान्तरमानन्दस।
__ काव्यप्रकाश, पृ. + युक्त्यानयानुसर्तव्यो रसादिर्बहुविस्तरः। मितोऽप्यनन्ततां प्राप्तः काव्यमार्गों यदाश्रयात्।।
ध्वन्यालोक, 4/3 5. तेन रस एव वस्तुतः आत्मा, वस्त्वलड कारध्वनिस्तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवत्येते इतिअभिनवगुप्त,
ध्वन्यालोकलोचन, पृ. 85