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पूर्वोक्त विभिन्न जैनाचार्यों द्वारा निरूपित काव्य- प्रयोजनों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि पुरुषार्थ - चतुष्ट्य जिसका सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया है, उसे जैनाचार्यों में नरेन्द्रप्रभतरि (त्रिवर्ग) तथा वाग्भट द्वितीय (त्रिवर्ग) ने भी मान्यता प्रदान की है। आचार्य हेमचन्द्र ने ययापि मम्मट सम्मत अर्थप्राप्ति आदि तीन
प्रयोजनों का खण्डन किया है तथापि मम्मट की भांति आनन्दरूप
प्रयोजन को सर्वश्रेष्ठ माना है। वाग्भट द्वितीय ने मम्मट के अर्थप्राप्ति के स्थान पर त्रिवर्ग फल - प्राप्ति रूप प्रयोजन माना है, शेष पाँच प्रयोजन मम्मट सम्मत ही है। भावदेवसरि प्रायः मम्मट के समर्थक हैं।
अस्तु समस्त काव्य प्रयोजनों का सम्यकृतया विवेचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि जैनाचार्यों ने पूर्वाचार्यो द्वारा कथित काव्य - प्रयोजनों को आधार मानकर अपना मत प्रस्तुत किया है तथापि वाग्भट-प्रथम द्वारा मान्य एकमात्र यशरूप प्रयोजन अपनी मौलिकता प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने मम्मट स्वीकृत छ: काव्य-प्रयोजनों में से तीन का खण्डन कर एक नवीन विचार प्रस्तुत किया
है।