SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 122 आचार्य नरेन्द्रप्रभतार ने हेमचन्द्राचार्यसम्मत आनन्द, यश तथा कान्तासम्मित उपदेश के अतिरिक्त धर्म, अर्थ तथा कामरूप सातिय (निरर्गल )त्रिवर्ग को काव्य-प्रयोजन माना है।' आचार्य वाग्भट द्वितीय ने प्रमोद (दृर्ष), अनर्थ-निवारप, व्यवहारज्ञान, त्रिवर्ग फल प्राप्ति, कान्तासम्मित उपदेश तथा कीर्तिरूप : काव्य-प्रयोजनों को स्वीकार किया है। मावदेवतरि इष्ट तथा अनिष्ट का ज्ञान करके उसमें प्रवर्तन और निर्वतन, गुरू तथा मित्र के सदृश कार्य-साधक, कल्यापकारी यश तथा धन-प्राप्ति रूप प्रयोजन मानते हैं। 1. अमन्दोद्गतिरानन्दस्त्रिवर्गपच निरर्गलः। कीर्तिपंच कान्तातुल्यत्वेनोपदेशश्च तत्फलम।। अलंकारमहोदधि, 1/5 2. काव्यम् । प्रमोदामानर्थपरिहाराय व्यवहारज्ञानाय त्रिवर्गफललाभाय कान्तातुल्यतयोपदेशास कीर्तये च। काप्यानु. वाग्भट, पृ. 2 3 इष्टानिष्टेषु तज्ज्ञानं प्रवर्तन - निवर्तनात् काव्यं गुरू - सुहत् - तुल्यं कार्य अयो.यशः श्रिये ॥ काव्यालंकारमार।/2
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy