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साक्षात्प से नाटकादि धर्म, अर्थ तथा काम इन तीनों में से ही किसी एक फल को ही प्रदान करने वाले होते हैं तथापि राम के समान आचरण करना चाहिए रावप के समान नहीं इस प्रकार की हेय तथा उपोदय के परित्याग तथा गृहप परक होने से नाटकादि मोध के प्रति भी परम्परया कारप हो सकते हैं। इतलिये भी मोक्ष को उनका फल कहा जा सकता है तथा धर्म के भी मोक्षजनक होने से परम्परा से मोक्ष भी नाटकादि का फ्ल हो सकता है।' हाँ मोक्षप्राप्तिरूप फल धर्म की अपेक्षा गौप फल होता है। आगे दे लिखते हैं कि नाटकादि नायक तथा प्रतिनायक के नीतिपरक तथा अनीतिपरक कार्य-पनों को दिवाकर प्रवृत्ति-निवृत्ति का उपदेश प्रदान करते हैं।'
1. यद्यपि साक्षात धर्म-अर्थ-कामफ्लान्येव नाटकादीनि तथापि
"रामवद वर्तितव्यं न रावणवद' इति हेयोपादेय - हानोपादानपरतया, धर्मस्य च मोक्षहेततया मोधोऽपि पारम्पर्येप फ्लस।
हि. ना. द., पृष्ठ ।। 2. मोक्षस्तु धर्मकार्यत्वात गौपं फ्लम्।
ना. द पृष्ठ 2 नायकपतिनायकयोहि नयानयफ्लोपदशनेन नाटकादिभिईदान्तचेतसां न्यायादनपेते कृत्ये प्रवृत्तिर्व्यवस्थाप्यते।
ना. द पृष्ठ 12