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________________ कृत ( नृत्य ) अभिनय आदि का क्रियात्मक ज्ञान तथा रंक से राजा पर्यन्त लोक व्यवहार के परिचिति । इन दोनो हेतुओं को अधिकांश सीमा तक व्युत्पत्ति कह तकते हैं। पूर्व सीमा तक इसलिये नहीं कि उन आचार्यों ने व्युत्पत्ति तथा निपुपता के अन्तर्गत लोक-व्यवहारज्ञान के अतिरिक्त काव्यग्रन्थों एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का पठन-पाठन भी सम्मिलित किया है। पर आचार्य रामचन्द्र - गुणचन्द्र के पूर्वोक्त कथन ते यह नहीं समझना चाहिए कि उन्हें केवल व्यवहार ज्ञान को ही काव्यहेतु मानना अभीष्ट होगा तथा शेष दो - प्रतिभा व अभ्यास को नहीं । नाट्यदर्पण के तृतीय विवेक में रस विवेचन के प्रसंग में, नाट्यदर्पणकार कवि की शक्ति अर्थात्, प्रतिभा को ही काव्य का प्रधान हेतु मानते प्रतीत होते हैं। वे लिखते हैं कि जो कवि, नट आदि का शक्ति कौशल है, ये चमत्कारविशेष ही कवि व सहृदयों की लेखन व प्रेक्षण प्रवृत्ति को प्रेरित करते हैं । । - 1 2. - आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि' एवं वाग्भट द्वितीय हेमचन्द्राचार्य की भांति व्युत्पति तथा अभ्यास ते संस्कृत प्रतिभा को ही काव्य का हेतु मानते हैं। कारण प्रतिमेवास्य व्युत्पत्यभ्यासवासिता । बीजं नवांकुरस्येव काश्यपी - जल संगतम् । । अलंकारमहोदधि 1/6 11 - 1. "... अनेनैव च सर्वांगह्लादकेन कविनट-शक्तिजन्मना चमत्कारेण विप्रलब्धा:परमानंदरूपतां दुःखात्मकेष्वपि करूपादिषु सुमेधसः प्रतिजानीते । एतदास्वादलौल्येन प्रेक्षका अपि एतेषु प्रवर्तन्ते । " नाट्यदर्पण, पृ. 291 3. व्युत्पत्यभ्या संस्कृता प्रतिभास्य हेतु: काव्यानुशासन वाग्भट - पृ.2 - -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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