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________________ 112 आचार्य भावदेवतरि मम्मट का अनुसरप करते हुए प्रतिभा, व्युत्पति तथा अभ्यास के सम्मिलित रूप को काव्य का हेतु मानते हैं।' पूर्वोक्त काव्य-हेतु विवेचन को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि भावदेवसरि को छोड़कर अन्य उल्लिखित समस्त जैनाचार्यो ने व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से संस्कृत प्रतिभा को ही काव्य-हेतु स्वीकार किया है। जिसका समर्थन परवर्ती विद्वान् पंडितराज जगन्नाथ ने किया काव्य - प्रयोजन काव्य - प्रयोजन - विचार की परम्परा अलंकारशास्त्र की एक प्राचीनतम परम्परा है। यहाँ कला कला के लिये की बात को नहीं माना गया और न आधुनिक उपयोगितावाद को ही काव्यभूमि में प्रतिष्ठित किया गया है अपितु काव्य के दृष्ट तथा अकृष्ट दोनों प्रकार के प्रयोजन माने गये हैं। नाट्य के अथवा काव्य के प्रयोजन पर सर्वप्रथम भरतमुनि ने ( तृतीय शताब्दी ) विचार किया था। उनका कथन है कि लोक का 1. शक्तिर्युत्पत्तिरभ्यासस्तस्य हेतुरिति त्रयम् । काव्यालंकारया।/2
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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