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________________ 110 अनुसार गहप करना, तमस्यापूर्ति करना आदि को भी छाया का उपजीयन बतलाया है।' ___आ. रामचन्द्र-गुपचन्द्र का दृष्टिकोप यद्यपि काव्य' या नाट्य-हेतु का विस्तृत विवेचन करना नहीं है, तथापि प्रकारान्तर से गन्यारम्भ में काव्यनाट्य-निर्माण पर चलता सा प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं कि जो कवि निर्धन से लेकर राजा तक की "औचिती' अर्थात उनके सामान्य व्यवहार से अवगत न होते हुए भी काव्य - निर्माण की कामना करते हैं, वे विद्वज्जनों के उपहास के पात्र बनते हैं। तथा जो नाटककार न तो गीत, वाप, नृत्य आदि जानते हैं, न लोकस्थिति से परिचित है, और न प्रबन्धों अर्थात, नाटकों का अभिनय ही कर सकते हैं वे भी नाट्य-रचना के अधिकारी नहीं है। यहाँ दो काव्यहेतुओं की प्रकारान्तर से चर्चा हुई है : गीत, वाघ, 1. काव्यानुशासन, वृत्ति, 14, 16 2. आर.काद भपतिं यावदौचितीं न विदन्ति ये। स्पृह्यन्ति कवित्वाय, येलनं ते सुमेधसाम।। नाट्यदर्पप, 1/8 3 न गीतवाधनृत्तज्ञाः, लोकस्थितिविदो न ये अभिनेतुं च कर्तु च प्रबन्धास्ते बहिर्मुखाः ।। नाट्यदर्पप, 1/4
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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