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________________ 101 है तो उपहासास्पद हो जाती है। परन्तु उन्होंने उसे वांछित गौरव नहीं दिया तथा प्रतिभा का उल्लेख काव्य के तृतीय अंग प्रकीर्प के अन्तर्गत किया है। आ. आनन्दवर्धन ने प्रतिभा का महत्व स्वीकार करते हुए लिखा है कि उस आस्वादपूर्व अर्थतत्व को प्रकाशित करने वाली महाकवियों की वापी अलौकिक स्फुरपशील प्रतिभा के वैशिष्ट्य को प्रक्ट करती है। इतना ही नहीं उन्होंने अव्युत पत्तिजन्य दोष को प्रतिभा के द्वारा आच्छादित होना भी स्वीकार किया है अर्थात आनन्दवर्धन प्रतिभा के प्रबल समर्थक हैं। लोचनकार ने प्रतिभा की व्याख्या करते हुए लिया है कि अपूर्व वस्तु के निर्माप में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिमा कहते हैं।' 1. सरस्वती स्वाद तदर्थवस्तुनिष्यन्दमाना महतां कवीनाम। अलोकतामान्यमभिव्यनक्ति प्रतिस्फुरन्तं प्रतिभा विशेषम्।। - ध्वन्यालोक, 1/6 2. अव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संवियते कवेः। यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य स झटित्यवभासते।। - ध्वन्यालोक, 1/6 3 अपूर्ववस्तु निर्माणमा प्रज्ञा (प्रतिभा) - वही, लोचन, पृ. 171
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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