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________________ 102 राजशेखर प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति दानों को काव्य का प्रेयस्कर हेतु मानते हैं।' आ. मम्म्ट ने प्राक्तन परंपराप्रवाह का समावेश करते हुए काव्य-कारप प्रसंग में लिखा है कि शक्ति, लोक(व्यवहार)शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुपता तथा काव्य (की रचनाशैली तथा आलोचना पद्धति) को जानने वाले गुरु की शिक्षानुसार (काव्य - निर्माप)अभ्यास (ये तीनों) मिलकर समष्टि रूप से उत ( काव्य) के विकास (उद्भव) के हेतु हैं।2 मम्मट ने अपने इन काव्यहेतुओं मे हेतु : इस एकवचन का प्रयोग किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास - ये तीनों मिलकर काव्योदभव में हेतु है, पृथक् - पृथक् नहीं।' --- - 1. प्रतिभाव्युत्पती मिथः समवेते श्रेयस्यो इति यायावरीयः, - काव्यमीमांसा, अ. पृ. 3। 2. शक्तिर्निपुपता लोकशास्त्रकाव्याघवेक्षपात। __काव्यज्ञ शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदभवे।। - काव्यप्रकाश, 1/3 3. इति त्रयः समदिताः, न तु व्यस्ताः, तत्य काव्यस्योदभवे निषि समुल्लाते च हेतुर्न तु हेतवः। - काव्यप्रकाश, 1/3/ वृत्ति
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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