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________________ 100 भांति प्रतिभा पर अधिक बल न देकर तीनों का समान रूप से महत्व स्वीकार किया है। इसके ठीक आगे वह लिखे हैं कि यदि वह अदभुत प्रतिभा न भी हो तो भी शास्त्राध्ययन व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से दाणी अपना दुर्लभ अनुगह प्रदान करती है। कवित्व शक्ति के कृश होने पर भी परिश्रमी व्यक्ति विद्वानों की गोष्ठी में विजय प्राप्त करता वामन ने काव्यहेतुओं के लिये काव्यांग प्रॉब्द का प्रयोग किया है। इनके अनुसार काव्य के तीन हेतु हैं - लोक, विद्या तथा प्रकीप।2 यहाँ लोक से तात्पर्य लोक-व्यवहार से है। विद्या के अन्तर्गत शब्दशास्त्र, छन्दःशास्त्र, कोश, दण्डनीति आदि विद्याएं आती हैं। प्रकीर्प के अंतर्गत लक्ष्य ज्ञान, अभियोग, वृद्धतेवा, अवेक्षप, प्रतिभान तथा अवधान आते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वामन ने प्रतिभा को कवित्व का बीज माना है, जिसके बिना काव्य-रचना संभव नहीं है और यदि संभव भी 1. न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागपानुबन्धि प्रतिभानमद्भुतम्। अतेन यत्नेन च वागुपासिता धुवंकरोत्येव कमप्यनुग्रहम्।। कृषकवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमा विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते।। वही, 1/104-105 2. लोको विद्या प्रकीपं च काव्यांगानि - काव्यालंकारसूत्रवृत्ति ।/3/1
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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