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________________ RANDUAROU. valual-USTIBINI DIRUSHuaamauli १२२] पतितोद्धारक जैनधर्म। ति-तो यह हम लोगोंका सौभाग्य है। भला, यह तो बतायो वह ब्राह्मण साधु है या क्षत्रिय ? अथवा उनकी जाति क्या है ?' शिष्य यह सुनकर हंस पडे और बोले- साधु भी कहीं ब्राह्मण क्षत्री होते है । धर्ममें जातिके लिये कोई स्थान नहीं है ।' ति-क्या कहा ? धर्ममें जाति नहीं ? क्या धर्मको डुबाना चाहते हो ?' शिष्य- धर्म ऐसा गम्भीर और उदार है कि वह किसीके डुबायेसे नहीं डूब सक्ता । जानते हो, साधुगण मुक्तिके उपासक होते हैं-भुक्तिके नहीं । और मुक्ति न ब्राह्मण है-न क्षत्रिय और न वैश्य या शूद्र ! हमारे गुरुवर्य जीवन्मुक्त होना चाहते हैं और इसीका उपदेश देते हैं । फिर भला वह वर्ण जातिके झंझटमें क्यों पडे ? ' ति०-'वाह भाई, यह खूब सुनाई ! तो वर्णाश्रम धर्म सब व्यर्थ हैं !' शि०-'हां धर्मकी आराधना करनेवालेके लिए तो वह निष्प्र. योजन ही है । संसारके पीछे दोडनेवाले गृहस्थ उनसे अपना व्यवहार चलानेमें सुविधा अवश्य पाते है ।' ति०-'छिः छिः यह मैं क्या सुन रहा हूं। वर्णाश्रम धर्मके परम रक्षक महाराजाधिराज कोंचपुरेशके धर्म राज्यमें यह अधर्म वार्ता ! अच्छा, इसका मजा तुम्हारे गुरुको चखाऊँगा ।' तिलकधारी आखें लाल पीली करता हुआ चला गया । शिष्योंने उसकी आकृतिसे भविष्यमें आनेवाली आपत्तिका अनुमान कर लिया । वे गुरुवर्य के पास पहुंचे और सारा हाल उनसे कह
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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