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________________ हनि । [१११ iamirsinjrojini लोकपूज्य साधु महाराज होगये। ज्ञान-ध्यानमें लीन होकर वह अपना आत्मोत्कर्ष करते और जीवोंके कष्ट निवारण कर उन्हें सन्मार्ग पर लगाते थे ! लोग उन्हें महान तपस्वी कार्तिकेय कहते थे । ( 4 ) एक शिष्यने गद्गद होकर कहा - ' भैया ! देखो आज गुरुवर्यंने कैसा अनूठा सुभाषित कहा: 4 ' सिंहस्स कमे पडिद सारंग जह ण रक्वेद को वि । तह मिच्चुणा य गहियं जीवं पिण रक्वेद को वि ।। 9 भावार्थ-' जैसे वनमें सिंह के चुंगल में फंसे हुये हिरणके लिये कोई रक्षा करनेवाला व रण नहीं है, वैसे ही इस संसार में काल द्वारा ग्रस्त प्राणीकी रक्षा करनेके लिए कोई सामर्थ्यवान नहीं है !' दूसरेने कहा- हा भाई स्वामीजीके सुभाषित रत्न अनुपम हैं। देखो उस रोज उन्होंने क्या खूब कहा था: 4 ' मणुआणं असुमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेर्सि विरमणकज्जे ते पुण तत्थे व अणुरचा ।। ' भावार्थ - ' हे भव्य ! मनुष्योंकी यह देह विधनाने अशुचि बनाया है सो मानो इन मनुष्योंको वैराग्यका पाठ पढ़ानेके लिए ही बनाया हैं; परन्तु आश्चर्य है कि यह मनुष्य ऐसी देहसे भी अनुराग करते है । एक तिलकधारी मनुष्यने आकर पूछा-' भाई, तुम्हारे गुरु कौन हैं ?' उत्तर में शिष्योंने बतलाया-' स्वामी कार्तिकेय निर्मन्थाचार्य हमारे गुरु हैं। वे कोंसर के बाहर उथानों विराजमान हैं।'
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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