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________________ UDiminimunanimummDIRH. JUL0. ISI.. .I.H IL मुनि कार्तिकेय। [१२३ मुनाया। गुरुमहाराजको भी आपत्तिका अनुमान करके शिष्यों सहित समाधि धारण करनेका आदेश दिया! बाहरी दुनिया, सच बोलना भी तेरे निकट अपराध है। (७) राजाके सिपाहियोंने कार्तिकेय महाराजको जा घेरा । जब वह न बोले तो उन्होंने पाशविक बलका प्रयोग किया। उन्हें जबरदस्ती उठाकर वे गजाके सम्मुख लेगये । राजानें देखकर कहा' यह क्या ?" सिपा०-'महाराज ! न तो यह बोलता है, और न हिलता डुलता है। राजाने क्रूरतापूर्वक हंसते हुए कहा-'जरा इसकी मरम्मत. कर दो।' सिपाही भूखे भेडियेकी तरह साधु महाराज पर टूट पड़े। शोर होने लगा। रानीने भी यह कोलाहल सुना। वह दौड़कर नीचे आई। उसने देखा कि कार्तिकेयका शरीर खूनसे लथपथ हो रहा था । रानीने चिल्लाकर कहा- ' अरे यह क्या करते हो ? यह साधु मेरा भाई है।' राजा एक क्षणके लिये चौका, परन्तु दूसरे क्षण उसने कहा-'कोई भी हो, जो राजद्रोही है-राजधर्मका अपमान करता है, उसकी यही दशा होना चाहिये ।' रानी यह न देख सकी । वह खूनसे सने कार्तिकेयसे लिपट गई । राजाने उसे अलग करवा कर कार्तिकेयको अर्धमृतक करके एक तरफ डलवा दिया ! राजाका यह कर कृत्य विजलीकी तरह चारों ओर फैल गया। महान तपस्वी और लोकोद्धारक कार्तिकेयके भक्त भी जनतामें थे
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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