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________________ mataiorairmendmenonDamanD000mAMAam. IMIRECIPIMmm. ९४ परिवोदारका । ___ अंजन मुंह चढ़ाके बोला-'मुझपर विश्वास नहीं है, तो लो मैं यह जाता हूं। अब कभी आपको कष्ट... सोमदत्तने बीचमें ही उसे रोक लिया और कहा-'वाह, इतनी जल्दी नाराज होगए । लो चलो, देर मत करो।' अंजन खुशी खुशी सोमदत्तको हाथसे पकड़कर ले चला। बाहर एक अच्छी सी कोठरीमें उसे बैठा दिया और बोला- भाई, जरा देर तुम इस कोठरीको देखो भालो मैं अभी आता हूँ !' सोमदत्त कोठरीको देखने लगा। उसमे बैठने के लिये अच्छे गद्वे-तकिये लगे थे-बढ़िया फर्श बिछा हुआ था। छतमें झाड़फानुम लटक रहे थे । दीवालो र सुन्दर चित्र और निर्मल दर्पण लगे हुये थे। सोमदत्त कोठरीके इस सौदर्यको देखने में मम होगया। उसे इसका जग भी भान न हुआ कि कोठरी हिल रही है-झाडफानुम हिल हिल कर खतखता रहे है । पृथ्वी करवट थोड़े ही बंदल रही थी जो मोमदत्त कुछ और सोचता ! (४) अंजनने सोमदत्त के कवेपर हाथ रखकर कहा-' भई स्वब ! तुमने अभी यह जरासी कोठरी भी नहीं देख पाई ! मै तो अपना सब काम भी कर आया ।' मोमदन सिट पिटाकर रह गया । अंजनने उसके मंकोचको काफूर करने हुए कहा-'अच्छा भाई ' अर चलो, बाहरका वैचित्र्य देखो।" सोमदत्तने ज्योंही कोटरीके बाहर कदम रखा कि यह भौच
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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