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________________ SanamusisuaavaHBansumDuOORANDIRaravasanaamananpioneLIOHDDu माली सोमदत और मनलचोर । कासा हो वहीं खड़ा होगया-मानो उसे काठ मार गया हो। अंजन ताली बजाकर हंसने लगा । सोमदत्तको उसका यह बर्ताव अखर गया । वह झुंझलाकर बोला-' यह नटखटी । मेरेपर जादू किया है तुमने । मित्र होकर यह विश्वासघात !' अजनने कहा-'विश्वासघात है या प्रतिज्ञा पूर्ति यह अभी मालूम हुआ जाता है । जरा आगे बढ़िये ।" सोमदत्तने अँजनके साथ आगे बढ़कर एक अति रम्य और विशाल जिनमंदिर देखा । वह स्वर्ण शैलपर बड़ा ही मनोहर दिखता था। इस दिव्य दृश्यको देखने ही सोमदन अपनेको संभाल न सका । वह अंजनसे लिपट गया और पूछने लगा-'भाई, तुम मुझे कैसे किस तीर्थमे ले आए ! तुम बड़े अच्छे हो !' अंजन बोला- नहीं नहीं, मै बुग हैं। ले कहां आया ? देखने नहीं यह मेरुार्वत है और यह वहां का जिन चैत्यालय । विमानमें बैठकर तुम बहा आrcो ' ___ है : विमानमें बेटकर ? वह कोटरी विमान थी " पूछा सोमदत्तने आश्चर्यचकित हो! अंजनने उत्ता दिया - खुले बिमानमें आपका जी पड़ाता था । इसलिये मैंने बिमानको कोठीके रूपमें पलट दिया !' __ अंजनको छानीमें लगकर मोमदत्तने कहा-'माई ! तुम धर्मात्मा हो । तुम्हारा उपकार मैं कभी नहीं भूल सकता। चलो, अब हिकी पूजा करके अपना जन्म । र करें :
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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