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अनुवाद
१५८ तूं तडातड़ पत्तियाँ तोड़ता है मानों ऊंट का प्रवेश हुआ
हो । मोह में वशीभूत होकर तूं यह नहीं जानता कि कौन तोड़ता है और कौन टूटता है। (अर्थात् वनस्पति में भी यही आत्मा है जो मनुष्य में है, इसलिये वृक्षों को भी व्यर्थ नहीं संताना चाहिये।) पत्ती, पानी, दर्भ, तिल, इन सब को अपने समान ही जान ! फिर यदि मोक्ष को जाना है तो उसका कारण कोई अन्य ही है। (अर्थात् उक्त वस्तुओं को देव को चढाने से मुक्ति नही मिलती। मोक्ष का उपाय तो
आत्मध्यान ही है।) १६० हे जोगी! पत्ती मत तोड़ और फलों पर भी हाथ मत
बढा। जिसके कारण से तूं इन्हे तोडता है उसी शिव
को यहां चढा दे। १६१ देवालय में पापाण है, तीर्थ में जल और सब पोथियों में
काव्य हैं। जो वस्तु फूली फली दिखती है वह सब इंधन हो जायगी। (अर्थात् उक्त सव वस्तुएं नश्वर हैं,
उनके द्वारा आत्मकल्याण नहीं हो सकता।) १६२ एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ का भ्रमण करनेवालों को कुछ
फल न हुआ। चाहर तो पानी से शुद्ध होगया पर
अभ्यंतर का क्या हाल हुआ? १६३ हे मूर्ख! तूं ने तीर्थ से तीर्थ भ्रमण किया और अपने
चमड़े को जल से धो लिया। परतूं इस मन को, जो
पापरूपी मल से मैला है, किस प्रकार धोयगा? । १६४ हे जोगी ! जिसके हृदय में एक जन्म-मरण से विवर्जित
देव निवास नहीं करता वह परलोक को कैसें पा सकता है?