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अनुवाद
३५.
१११ शीघ्र लक्ष्य देकर आज तुझे उस करभ को जीतना चाहिये जिसपर चढकर परम मुनि सच गमनागमन से मुक्त हो जाते हैं।
११२ हे करम ! जब तक तूं विषम भवसंसार की गति की उच्छेदन न कर डाले तप तक जिनगुण रूपी स्थली में चर | तेरा पैगाम छोड़ दिया है।
११३ तप का दामन ( वंधन ), व्रत का... ( ? ) तथा शर्म और दम का पल्याण वनाया । इस प्रकार संयमरूपी गृह से उन्माथी हुआ करहा ( करभ ) निर्वाण को गया ।
११४ एक तो तूं स्वयं मार्ग नही जानता और दूसरे किसी से पूछता भी नही है । ( इस प्रकार के) मनुष्यों को अटवी अटवी और पहाड़ों पर भटकते हुए देख !
११५ जो पत्र छोड़कर मोरा है वह तस्वर अंकृतार्थ है । शंके हुए पथिकों को वहां विश्राम नहीं मिलता और फलों को भी कोई हाथ नही लगाता । ( अर्थात् यदि धनी पुरुष में परोपकार बुद्धि न रही और उससे दुःखियों का उपकार न हुआ तो उस धन से क्या लाभ ? )
११६ पद्दर्शन के धंधे में पड़कर मन की भ्रान्ति न मिटी | एक देव के छह भेद किये इससे वे मोक्ष नहीं जाते । ( अर्थात् पदर्शन का लक्ष्य एक ही है। उनमें जो विरोध मानता है वह भ्रान्ति में है, इससे उसका कल्याण नही हो सकता । )
११७ हे आत्मन् ! एक पर को छोड़कर अन्य कोई वैरी नही है । जिसने कर्मों का निर्माण किया है उस पर को जो मिटा दे ही यति है ।