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रहस्यवाद ४. पाहुडदोहा में रहस्यवाद
. इस ग्रंथ के कर्ता एक योगी थे और योगियों को ही सम्बोधन कर के उन्होने ग्रंथरचना की है । यद्यपि उनका सामान्योपदेश सीधा और सरल है किन्तु ग्रंथ के स्थल स्थल पर रहस्यवाद की छाप भी लगी हुई है । कर्ता के लिये देह एक देवालय है जिप्तमें अनेक शक्तियों सहित एक देव अधिष्ठित है। उस देव का आराधन करना, उसे पहचानना, उसमें तन्मय होना, एक बड़ी गूढ क्रिया है जिसके लिये गुरु के उपदेश और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है । ग्रंथकार का गूढवाद समझने के लिये मैं पाठकों का ध्यान निम्न दोहों पर विशेष रूप से आकर्पित करता हूं-दोहा नं. १,९, १४, ४६, ५३, ५५, ५६, ९४, ९९, १००, १२१, १२२, १२४, १२७, १३७, १४४, . १५७, १६७, १६८, १७०, १७७, १८१, १८४, १८६, १८८, १९२, २०३, २१३, २१९, २२०, २२१. इन दोहों में जोगियों का आगम, अचित और चित्, देहदेवली, शिव और शक्ति, संकल्प और विकल्प, सगुण और निर्गुण, अक्षर, बोध और विबोध, वाम, दक्षिण और मध्य, दो पथ, रवि, शशि, पवन और काल आदि ऐसे शब्द हैं, और उनका ऐसे गहन रूप में प्रयोग हुआ है, कि उनसे हमें योग और तांत्रिक ग्रंथों का स्मरण आये विना नही रहता । ययार्थतः विना इन ग्रंथों की सांकेतिक भाषा के अवलम्बन के उपर्युक्त दोहों के पूरे रहस्य का उद्घाटन नही होता