________________
पाहुड - दोहा
ग्रंथकार ने अपना उपर्युक्त उपदेश अत्यन्त सरल, सरस और सुन्दर दोहों में रखा है । उन्होने कहीं अपने भापा- पाण्डित्य या विद्वत्ता को बतलाने का प्रयत्न नहीं किया, किन्तु दोहे दोहे में उनके गम्भीर विचारों तथा मानवीय दुर्बलताओं के ज्ञान का परिचय मिलता है। उनका उपदेश खासकर उन मूर्ख व्यक्तियों को है जो विना आत्मसंयम का अभ्यास किये व विना आत्मकल्याण के सच्चे मार्ग को जाने ' जोगिया ' बन जाते हैं । उपमाओं और रूपकों का कर्ता ने खूब उपयोग किया है । उन्होने मन को करहा ( करम. ऊँट ), देह को देवालय कुटी ( कुडिल्ली ) और आत्मा को शिव तथा इंद्रियवृत्तियों को शक्ति कह कर अनेक बार सम्बोधन किया है । करहा की उपमा कवि को बहुत ही प्रिय है । वह बहुत से दोहों में आई हैं और कहीं कहीं तो कवि ने उसे विस्तार से दर्शाया है । उदाहरणार्थ १११, ११२, ११३ दोहे देखिये । कहीं कहीं कवि के लेप और अन्योक्तियाँ मार्मिक हैं, जैसे दोहा नं. ११५, १४९, १५०, १५१, १५२. उनके दृष्टान्त भी सुन्दर और सरल होते हैं ( देखो दोहा १५, ७१, १४६, १४७, १४८. ) ग्रंथकार ने कुछ दोहों में देह और आत्मा के संयोग का प्रेयसी और प्रेमी के रूपक में वर्णन किया है ( दोहा ९९, १००). यह शैली पीछे हिन्दी कविता में बहुत ठोक प्रिय होगई और भक्त और आराध्य का प्रेयसी और प्रेमी के रूपक में बहुत वर्णन हुआ है। ग्रंथ में ऐसी उपमायें और उक्तियां बहुत हैं जो सार्वजनिक होने के लायक हैं तथा जो सम्भवतः कवि के समय में ऐसी रही हैं ।
१६