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विषय व.शैली
१५ घोषणा की है । जैन समाज में ऐसे मुनि : महात्माओं का वाहुल्य रहा है । प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता भी इसी कोटि के थे । उन्होने 'अपना गुरु माना है प्रकाशदाता को। यदि सूर्य से प्रकाश आता है तो वह गुरु है, यदि चन्द्र से प्रकाश आता है तो वह गुरु है,
और यदि किसी ज्ञानी से प्रकाश आता है तो वही गुरु है। उनका. उपदेश है कि सुख के लिये बाहर के पदार्थों पर अबलम्बित होने की आवश्यकता नहीं है, इससे तो केवल दुःख और संताप ही वढेगा । सच्चा सुख इन्द्रियों पर विजय और आन्मध्यान में ही मिलता है । यह सुख इंद्रियसुखाभासों के समान क्षणभंगुर नंही है, किन्तु चिरस्थायी और कल्याणकारी है। आत्मा की शुद्धि के लिये न तीर्थ जल की आवश्यकता है, न नानाप्रकार का वेष धारण करने की । आवश्यकता है केवल, राग और द्वेष की प्रवृत्तियों को रोक कर, आत्मानुभव की | मूंड मुडाने से, केशलोंच करने से या नग्न होने से ही कोई सच्चा योगी और मुनि नही कहा जा सकता । योगी तो तभी होगा जब समस्त अंतरंग परिग्रह छूट जावे और मन आत्मध्यान में लवलीन हो जावे । देवदर्शन के लिये पापाण के बड़े बड़े मन्दिर बनवाने तथा तीर्थों तीर्थ भटकने की अपेक्षा अपने ही शरीर के भीतर निवास करने वाले देव का दर्शन करना अधिक सुखप्रद और कल्याणकारी है । आत्मज्ञान से हीन क्रियाकांड कणरहित वुष और पयाल कूटने के समान निष्फल है। ऐसे व्यक्ति को न इन्द्रियसुख ही मिलता और न मोक्ष का मार्ग-ही।