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पाहुड - दोहा
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कहीं कहीं तो कुछ अर्थ ही समझ में नहीं आता । कोरा शब्दज्ञान काम नही देता, युक्ति थकित हो जाती है और बुद्धि भ्रमित होने लगती है । जब कवि ' निम्मलि होड़ गयेसु ' कह कर चल देते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि वे हमें भ्रान्ति में डालकर, धोका देकर भाग रहे हैं। टिप्पणी में कहीं कहीं इस योग और तंत्र के रहस्य का अति सूक्ष्म संकेत मात्र कर दिया गया है । इसका पूर्ण अध्ययन कर, रहस्य के उद्घाटन के दिये न तो इस समय मेरे पास यथेष्ट साधन हैं और न अवकाश है । इसलिये विषय के चित्ताकर्षक और मोहक होने पर भी उसे यहीं छोड़ना पड़ता है । किन्तु यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस विषय में यह ग्रंथ ब्राह्मण और बौद्ध तांत्रिक कविता से समानता रखता है। इसी ग्रंथ के प्रायः समकालीन वौद्ध चर्यापद और दोहाकोपों में भी इसी प्रकार की, प्रायः इन्ही सांकेतिक शब्दों में, और ऐसी ही अपभ्रंश भाषा में, कविता पाई जाती है।
५. पाहुडदोहा का अन्य ग्रंथों से सम्वन्ध
यों तो इस ग्रंथ में जो भाव प्रगट किये गये हैं उनसे ब्राह्मण साहित्य के उपनिषद् ग्रंथ तथा जैन साहित्य के प्रायः सभी आध्यात्मिक ग्रंथ वोतप्रोत हैं, तथापि निन्न ग्रंथों में, भाषा और भाव, दोनों दृष्टियों से कुछ असाधारण साहय्य हमारे देखने में थाया है जिसका यहां परिचय दे देना उपयुक्त प्रतीत होता है ।