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पाहुड-दोहा २.११. अणुपेहा-अनुप्रेक्षा, अनुचिन्तन या भावना को वाहते हैं। अंतरंग शुद्धि तया वैराग्य भाव वढाने के लिये जैन धर्म में बारह भावनाएँ मानी गई हैं। ये बारह भावनाएँ हैंअनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यच, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, धर्म और बोध । इनका वर्णन
आभ्रंश 'करकंडचरिउ' की नवमी सन्धि में या कुन्दकुन्दाचार्य. कृत प्राकृत 'बारस अणुवेक्खा ' में देखिये ।
२१३. दो पयों का उल्लेख दोहा १०५ और १८८ में, आ चुका है। योग के कुछ ग्रंथों में बाम और दक्षिण मार्ग को छोड़ने का उल्लेख पाया जाता है ।
२११. कत्रि का तात्पर्य यह है कि उपवास से शरीर को संताप पहुंचता है और इसी संताप से यह इन्द्रियों का निवास दग्ध हो जाता है और आत्मा मुक्त हो जाता है।
२१५. यह दोहा कुछ भिन्न रूप में 'सावयधम्मदोहा । में भी है । उसके पाठ और अर्थ के लिये देखो सावय. ३०.
२१६. तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार जिस चलते फिरत माणिक्य मिल जाता है तो वह उसे चुपचाप अपने अंचल में बांध लेता है और एकान्त में उसका निरूपण करता है, टीक उसी प्रकार यदि मामजान का अंकुर हृदय में जम गया हो तो संसार के जंजाल से पृषक होकर खानुमत्र में चित्त को लगाना चाहिये।