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टिप्पणी
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१९२. इस दोहे का तात्पर्य भगवद्गीता' के निम्न श्लोक के
समान है-
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
२६९.
मोक्षपाहुड की ३१ वीं गाथा की टीका में श्रुतसागर ने निम्न दोहा उद्धृत किया है:
जा निसि सयलहं देहियहं जोग्गिङ तर्हि जग्गेह | जहिं पुणु जग्गह सयलु जगु सा निसि भणिवि सुएइ ॥
१९३. संचित कर्मों के नाश करने को जैन सिद्धान्त में निर्जरा, और नये कर्मों के मार्ग को रोकने को संवर कहा है । इन दोनों क्रियाओं के पूर्ण होने पर मोक्ष होता है । यह दोहा थोड़े से भिन्न रूप में ऊपर नं. ७७ पर आ चुका है 1
२०६. दोहे का तात्पर्य यह है कि समस्त मंत्रतंत्रादि क्रियाओं से रहित होकर, ध्येय, ध्यायक और ध्यान की विभिन्नता को भूलकर योगी आनन्द से सोता है, उसे इस संसार का कलकल रुचिप्रद नही होता
२०८. क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य, ये धर्म के दश अंग हैं । इनका सुन्दर वर्णन अपभ्रंश भाषा में रइघू कवि ने अपने ' दहलक्खणजयमाल " में किया है ।