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गत ५०० वर्षों मे कीर्तिरत्नसूरिजी की शिष्य परम्परा मे सैकडो कवि और विद्वान हो चुके हैं, उन सबका परिचय देना एक स्वतन्त्र ग्रन्थ का विषय है, ४५ वर्ष पूर्व श्री जिन कृपाचन्द्रमूरि ज्ञानभण्डार बीकानेर मे हमने एक वडा गुटका देखा था, जिसमे कीर्तिरत्नसूरिजी की परम्परा का विस्तृत विवरण था ।
कीतिरत्नसूरि और और उनकी परम्परा के सम्बन्ध मे हमने बहुतसी सामग्री इकट्ठी की थी, पर उसे व्यवस्थित रूप देने और प्रकाशित करने का सुयोग अभी तक नही मिला। ऐसे महान् विद्वान् जैनाचार्य के नेमिनाथ महाकाव्य को सानुवाद प्रकाशित करते हुए हम धन्यता का अनुभव कर रहे हैं ।
परिशिष्ट (1) कीतिरत्नसूरिजी की रचनाएँश्रोजिनकीत्तिरत्नसूरि प्रणीतम् (१) अजितनाथ - जपमाला - चित्र-स्तोत्रम्
जिनेन्द्रमानन्दमय जिर्तन पक्ष प्रवीर दुरितापहारम् । नुदामि देव प्रकटानुभाव, नव्य पवित्र गुणपीनपात्रम् ॥ १॥ निष्काभभास शिवसन्निवास, गजध्वज त्वा मिजिताङ्ग नृत्वा । निश्रेयसं रक्तिरुषा निवार, जन. सदा नम्य वभाज को न ||२|| सदा विडौजाश्चरणौ सतेजा, यस्यानराते शुभकायकान्ते । ननाम दूर बहुमानसारं स्तुत्यः सभृत्यस्य ममास्तु नित्यम् ||३|| सम्यक्प्रसादाद्, भवत.सभन्दाद्-स्त्रिलोकराज सुचरित्रिणौज । गता अनन्ता मति सङ्गति ता, विधेहि शम्भो मम सविदम्भो ॥४॥ विनोति य कश्चन ते विशोक, लसच्छ्रिय कान्त विशाल रोकाम् । ययौ पर शर्ममय यतीश पद सयुक्ति क्षतपापक्ति ||५|| भदन्त देव क्षणु लोभभाव, तक्षेश कोप मम कृन्त पापम् । रक्षा प्रभो मे कुरु धीर कामेश्वराधिपार नय विश्वतार ||६||
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