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दूसरा परिच्छेद अनंगसिंहने चित्रगतिको ललकार कर कहा :-"हे वालक ! यदि तुझे अपने प्राणोंका जरा भी मोह हो, तो इसी समय यहाँसे भाग जा, वर्ना मैं तेरा शिर धड़से अलग कर दूंगा।"
चित्रगतिने उपेक्षापूर्ण हास्य करते हुए कहा :"हे मूढ़ ! एक लोहका टुकड़ा हाथमें आ जानेसे तुझे इतना गर्व हो गया, कि तू अपने उस प्रतिस्पर्धीको रणसे भाग जानेको कहता है, जो तुझे घंटोंसे हॅफा रहा है ? इस शस्त्रके बूते पर लड़ना कोई वीरता नहीं है। यदि तेरी भुजाओंमें बल हो, तो इसे दूर रख दे और जितनी देर इच्छा हो, मुझसे आकर लड़ले।"
चित्रगतिके यह वचन सुनकर राज अनंगसिंह क्रोधसे, कुचले हुए सर्पकी भांति झल्ला उठा । उसने चित्रगति पर उस दिव्य खड्गसे वार करनेकी तैयारी की, परन्तु चित्रगति भी असावधान न था। उसने अपनी विद्याके पलसे चारों ओर अन्धकार फैला कर दिनकी रात चना दी। जिसप्रकार श्रावणकी अंधेरी घटामें कुछ सूझ नहीं पड़ता, उसी प्रकार अन्धकारके