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नेमिनाथ चरित्र
कि भोजन-सामग्री समाप्त हो गयी है, इसलिये महाराज अब दया करिये ! महाराज तो यह सुनकर चिढ़ उठे । उन्होंने कहा :- "यदि भरपेट खिलानेकी सामर्थ्य न थी, तो व्यर्थ ही मुझे यहाँपर क्यों बुलाया ? मेरा पेट अभी नहीं भरा। अब मुझे कहीं अन्यत्र जाकर अपनी उदरपूर्ति करनी पड़ेगी ।"
इस प्रकार रोष दिखाकर वह ब्राह्मणवेश धारी द्य न वहाँसे चलते घने और इधर बेचारी सत्यभामा सौन्दर्य प्राप्त करनेकी आशा में अपने रूपको विरूप बना, उस मन्त्रका जप करती ही रह गयी ।
सत्यभामा के महलसे निकल, प्रद्युम्न एक बालसाधुका वेश धारण कर, उसी वेशमें रुक्मिणीके महलमें पहुॅचे। नेत्रोंको आनन्द देनेवाला उनका 'चन्द्र समान रूप देखकर रुक्मिणी उठकर खड़ी हो गयीं और उनको आसन देनेके लिये अन्दर गयीं । इतनेहीमें वे वहाँ रक्खे हुए कृष्ण सिंहासन पर बैठ गये । आसन लेकर बाहर आनेपर रुक्मिणीने देखा, कि साधु महाराज कृष्णके आसन पर बैठे हुए हैं, तब उनके नेत्र आश्चर्य से विकसित