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नेमिनाथ-परित्र इतना कह, कृष्ण उन सबोंको अपने साथ लेकर श्रीप्रासादमें आये। रुक्मिणी इस समय भी पूर्वकी ही भाँति लक्ष्मीके स्थानमें बैठी हुई थी। : किन्तु इसबार कृष्णको देख कर वह खड़ी हो गयी और उसने कृष्णसे कहा :- "हे नाथ ! मुझे मेरी इन बहिनोंका परिचय दीजिये, जिससे मैं अपनी बड़ी बहिनको प्रणाम कर सकूँ।"
कृष्णने यह सुनकर रुक्मिणीको सत्यभामाका परिचय देकर कहा:-"यही तुम्हारी बड़ी वहिन है " ।
यह सुनकर रुक्मिणी सत्यभामाको प्रणाम करनेको उद्यत हुई, किन्तु सत्यभामाने उसे रोक कर कहा :"नाथ ! अब यह सर्वथा अनुचित होगा, क्योंकि अज्ञानताकै कारण मैं इन्हें पहले ही प्रणाम कर चुकी हूँ !"
कृष्णने हँस कर कहा:-"खैर, कोई हर्ज नहीं। बहिनको प्रणाम करना अनुचित नहीं कहा जा सकता।"
..यह सुनकर सत्यभामाको बड़ा ही पश्चाताप हुआ और वह बिलखती हुई अपने स्थानको. चली गयी। कृष्णकी इस युक्तिसे रुक्मिणी अनायास पटरानी बन