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तेरहवाँ परिच्छेद वहाँ शिर झुका-झुका कर लक्ष्मीकी प्रतिमा ( रुक्मिणी) को प्रणाम करने लगीं। सत्यभामाने तो हाथ जोड़ कर यह भी प्रार्थना की कि :- "हे देवि ! तुम ऐसा करो कि मैं प्राणनाथकी नवीन पत्नीको रूपमें जीत लें। यदि मेरा यह मनोरथ सफल होगा, तो मैं भक्ति-पूर्वक तुम्हारी पूजा करूँगी !"
इस प्रकार मिन्नत मना, सत्यभामा अन्यान्य रानियौके साथ, रुक्मिणीको देखने के लिये, श्रीप्रासादमें उसकी खोज करने लगी। वे सब महलका कोना कोना खोज आयीं, परन्तु कहीं भी रुक्मिणीका पता ना चला। पता चल भी कैसे सकता था ? रुक्मिणीने तो लक्ष्मीका स्थान ग्रहण कर लिया था। वहाँ वे सब पहले ही हो आयी थी, किन्तु किसीको खयाल तक न आया था कि यही रुक्मिणी है। अन्तमें जब वे निराश हो गयीं, तब कृष्णके पास वापस लौट गयीं। वहाँ कृष्णसे अपनी परेशानीका हाल उन्होंने कह सुनाया। सुनकर कृष्ण हँस पड़े। उन्होंने कहा :--'अच्छा चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।" . .