________________
पहला परिच्छेद मेरा विश्वास है कि साक्षात् धनको देखनेके बाद जो इस चित्रको देखेगा, वह अवश्य ही मेरी निन्दा करेगा। तुमने उसे अपनी आंखोंसे नहीं देखा है, इसीलिये तुम कूप-मण्डककी भांति विस्मित हो रही हो । राजकुमारका रूप देखकर मानव-स्त्रियाँ तो दूर रहीं, देवाङ्गनाएँ भी मोहित हुए बिना नहीं रह सकती। मैंने तो केवल अपने नेत्रोंको तृप्त करनेकेलिये ही यह चित्र अस्ति किया है।"
धनवती सड़ी-सड़ी चित्रकारकी यह सब बात सुनती रही। सच बात तो यह थी कि उस चित्रको देखकर वह मुन्ध हो गयी थी और स्वयं भी चित्रकी भांति गति हीन बन गयी थी। उसे वह चित्र हाथसे छोड़नेकी इच्छा ही न होती थी। उसझी यह अवस्था देखकर कमलिनीने उसका मनोभाव ताड़ लिया। उसने चित्रकारके निकट उसके कला-कौशल और उसकी निपुणताकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर, उससे उस चित्रकी याचना की। चित्रकार कमलिनीकी यह याचना अमान्य नहीं कर सका। राजकुमारीके विनोदार्थ उसने सहर्ष वह चित्र कमलिनीको दे दिया।