________________
छठा परिच्छेद
१५१
उस कुएँ में उतरने लगा । त्रिदण्डीने ऊपरसे उसकी रस्सी पकड़ रक्खी थी। बीस पचीस हाथ नीचे जाने पर मुझे चमकता हुआ रस दिखायी दिया। मैं ज्योंही वह रस कमण्डलमें भरनेको तैयार हुआ, त्योंही किसीने मुझे वैसा करने से मना किया। मैंने कहा :- "भाई ! तुम मना क्यों करते हो ? मैं चारुदत्त नामक वणिक हूँ और त्रिदण्डी स्वामीके आदेशसे यह रस लेने यहाँ आया हूँ ।"
उस आदमीने कहा :- "भाई ! मैं भी तुम्हारी ही तरह धनका लोभी एक वणिक हूँ और वह त्रिदण्डी ही मुझे यहाँ लाया था । इस कुएं में उतारनेके बाद वह पापी मुझे यहीं छोड़ कर चला गया। यह रस बड़ा तेज है। यदि तुम इसमें उतरोगे तो तुम्हारी भी यही अवस्था होगी । यदि तुम रस लिये बिना वापस नहीं जाना चाहते तो, अपना कमण्डल मुझे दो, मैं उसमें रस भर दूँगा ।"
उसकी यह बात सुनकर मैंने वह कमण्डल उसे दे - दिया और उसने उसमें रस भरकर उसे मेरी मचियाके